पितृपक्ष पर विशेष : सबसे पहले किसने किया था श्राद्ध, कैसे शुरू हुई श्राद्ध और पिंडदान की ये परंपरा

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KAB SURU HUE PINDDAN KI PRAMPARA AUR KISHNE KIYA THA PAHLA SRADH KAB SURU HUE PINDDAN KI PRAMPARA AUR KISHNE KIYA THA PAHLA SRADH

PATNA:-इस समय पितृपक्ष का समय चल रहा है जिसमें सनातन धर्म को माननेवाले गया समेत कई धामों में अपने पितरों के लिए श्राद्ध और पिंडदान कर रहें हैं।इस श्राद्ध और पिंडदान को लेकर कई तरह की जानकारी अनेक धर्म ग्रंथों में बताई गई हैं।महाभारत के अनुशासन पर्व में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई ऐसी बातें बताई हैं,जो वर्तमान समय में बहुत कम लोग जानते हैं। महाभारत में ये भी बताया गया है कि श्राद्ध की परंपरा कैसे शुरू हुई और फिर कैसे ये धीरे-धीरे जनमानस तक पहुंची।आज हम आपको श्राद्ध से संबंधित कुछ ऐसी ही रोचक तथ्यों की जानकारी दे रहें हैं।

निमि ने शुरू की थी श्राद्ध की परंपरा

महाभारत में वर्णित तथ्यों के अनुसार सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमि को महातपस्वी अत्रि मुनि ने दिया था।उनके उपदेश के बाद निमि ने श्राद्ध की परम्परा का आरंभ किया था, उसके बाद अन्य महर्षि भी श्राद्ध करने लगे। धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में पितरों को अन्न देने लगे।लगातार श्राद्ध का भोजन करते-करते देवता और पितर तृप्त हो गए।

पितरों को हो गया था अजीर्ण रोग

श्राद्ध को लेकर कई कथाये और किंवदंती भी प्रसिद्ध है।एक किंवदंती के अनुसार श्राद्ध का भोजन लगातार करने से पितरों को अजीर्ण (भोजन न पचना) रोग हो गया और इससे उन्हें कष्ट होने लगा। तब वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे कहा कि- श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण रोग हो गया है,इससे हमें कष्ट हो रहा है,आप हमारा कल्याण कीजिए।

देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले- मेरे निकट ये अग्निदेव बैठे हैं,ये ही आपका कल्याण करेंगे। अग्निदेव बोले- देवताओं और पितरों!अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण दूर हो जाएगा।यह सुनकर देवता व पितर प्रसन्न हुए। इसलिए श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि के नाम से पिंड दिया जाता है।

पहले पिता को देना चाहिए पिंड

महाभारत के अनुसार,अग्नि में हवन करने के बाद जो पितरों के निमित्त पिंडदान दिया जाता है,उसे ब्रह्मराक्षस भी दूषित नहीं करते। श्राद्ध में अग्निदेव को उपस्थित देखकर राक्षस वहां से भाग जाते हैं। सबसे पहले पिता को,उनके बाद दादा को उसके बाद परदादा को पिंड देना चाहिए। यही श्राद्ध की विधि है। प्रत्येक पिंड देते समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री मंत्र का जाप तथा सोमाय पितृमते स्वाहा का उच्चारण करना चाहिए।

कुल के पितरों को करें तृप्त

रजस्वला स्त्री को श्राद्ध का भोजन तैयार करने में नहीं लगाना चाहिए। तर्पण करते समय पिता-पितामह आदि के नाम का स्पष्ट उच्चारण करना चाहिए। किसी नदी के किनारे पहुंचने पर पितरों का पिंडदान और तर्पण अवश्य करना चाहिए। पहले अपने कुल के पितरों को जल से तृप्त करने के पश्चात मित्रों और संबंधियों को जलांजलि देनी चाहिए। चितकबरे बैलों से जुती हुई गाड़ी में बैठकर नदी पार करते समय बैलों की पूंछ से पितरों का तर्पण करना चाहिए क्योंकि पितर वैसे तर्पण की अभिलाषा रखते हैं।

अमावस्या पर जरूर करना चाहिए श्राद्ध

नाव से नदी पार करने वालों को भी पितरों का तर्पण करना चाहिए। जो तर्पण के महत्व को जानते हैं,वे नाव में बैठने पर एकाग्रचित्त हो अवश्य ही पितरों का जलदान करते हैं। कृष्णपक्ष में जब महीने का आधा समय बीत जाए,उस दिन अर्थात अमावस्या तिथि को श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

इसलिए रखना चाहिए पितरों को प्रसन्न

पितरों की भक्ति से मनुष्य को पुष्टि,आयु,वीर्य और धन की प्राप्ति होती है। ब्रह्माजी,पुलस्त्य,वसिष्ठ,पुलह,अंगिरा,क्रतु और महर्षि कश्यप-ये सात ऋषि महान योगेश्वर और पितर माने गए हैं।मरे हुए मनुष्य अपने वंशजों द्वारा पिंडदान पाकर प्रेतत्व के कष्ट से छुटकारा पा जाते हैं।

ऐसे करना चाहिए पिंडदान

महाभारत के अनुसार, श्राद्ध में जो तीन पिंडों का विधान है, उनमें से पहला जल में डाल देना चाहिए। दूसरा पिंड श्राद्धकर्ता की पत्नी को खिला देना चाहिए और तीसरे पिंड की अग्नि में छोड़ देना चाहिए, यही श्राद्ध का विधान है। जो इसका पालन करता है उसके पितर सदा प्रसन्नचित्त और संतुष्ट रहते हैं और उसका दिया हुआ दान अक्षय होता है।


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